Tuesday, January 8, 2013


अशोक के फूल (IIBBM)
भारत की समस्त प्राकृतिक सुषुमा, उसकी व्यापक सौन्दर्य चेतना साहित्यिक कल्पना एवं सांस्कृतिक दृष्टि - इनसबको एकही प्रतीक के माध्यम से व्यक्त करें तो शायद ‘अशोक के फूल’से बढकर उपयुक्त प्रतीक हमें कोई औरनमिलेगा। यहनिबन्ध जो की अशोक के फूल की चर्चा से आरम्भ होता है, कालिदास की याद दिलाता हुआ एवं गुप्तकालीन वसन्तोत्सवों की झलकदेता हुआ आगे बढता है औरअन्त में कदपदेव की कहानी सुनाता हुआ इतिहास देवता की निर्ममता परप्रकाश डालता हुआ रवीन्द्रनाथ के ‘महामानव समुद्र’तकपहुंच जाता। लगता है मानो लेखक ने एकही दृष्टि से सहस्त्राब्दियों के इतिहास को छानकर उसका सार पाठक के सामने प्रस्तुत करदिया है। आरम्भ में हमलेखक को उससहृदय प्रकृति – प्रेमी की दृष्टि के रूप में पाते हैं जो अशोक के लाल-लाल फूलों के मनोहर स्तवकों को निहारने, देखने औरसूँघने में मोहन भाव से तल्लीन है। किन्तु दूसरे ही क्षण वहदृष्टि कालिदास के उनरंग-भवनों में पहुँच जाती है जहाँ शोभा और सौ-कुमार्य के भार से लदी हुई नववधुएँ अत्यन्त सुकुमारता से भीतर प्रवेश कररही हैं ।  महलों के प्रवेश-द्वार से आगे बढकरयहदृष्टि उनउपवनों में पहुँच जाती है जहाँ सुन्दरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृद आघात से फूलता हुआ अशोक दिखाई पडता है।  लेखक की रसिक दृष्टि केवल अशोक के फूल तक ही सीमित नही रहती आपितु वह इनके माध्यम से कोमल कपोलों पर झूलते हुए कर्णावतंसों’ एवं चंचल नीला अलाकों की अचंचल शोभा तक भी पहुँच जाती है।  किन्तु यह रसिक दृष्टि दूसरे ही क्षण इतिहास – वेत्ता की दृष्टि में परिणत हो जाती है और वह काल के कटु सत्यों का साक्षात्कार करती हुई अपनी अनुभूतियों को दर्शन का रूप दे देती है।  अशोक के फूलों का सौन्दर्य-पान करनेवाली दृष्टि अन्त में इस सत्य को लेकर उपस्थित होती है – “दुनिया बडी भुलककड है।  केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ रहता है”। फूल पर लिखते लिखते लेखक को मनुष्य की निर्बलता बुरी तरह खटकती है। लेखक ने अनेक स्थानों पर कल्पना के प्रयोग द्वारा मानवीय इतिहास पर भी विहंगम दृष्टि डाली है जिसमें मनुष्य की जीवन – शक्ति और संस्कृति पर विचार प्रस्तुत किये गए हैं।  इस निबन्ध में मनुष्य की दुर्गम जीने की इच्छा का विवेचन है।  कल तो केवल निमित्त मात्र मालूम होता है।  उसे आधार मानकर लेखक जिजीविष का विवेचन करने लगता है।  यहाँ मानवता के प्रति उसकी असीम ललक स्पष्ट होती है – मुझे मानव जाति की दुर्गम .......... जितना कुछ इस जीवन – शक्ति को समर्थ बनाता है, उतना उसका अंग बन जाता है। बाकी फेंक दिया जाता है।” इसी प्रकार स्थान-स्थान पर मानव तथा समाज विषयक अनेक ऐसी बातें व्यक्त की है, जिन्हें द्विवेदी जी ने अत्यन्त मूल्यवान समझा है।  एक स्थान पर कहा गया है – “कुछ भी तो नही बदला है। ........ अच्छा ही हुआ जो वह बदल गई|”
अशोक के फूल निबंध में लेखक ने भरतीय संस्कृति का सफल चित्रण किया है ।  भारतीय संस्कृति और जीवन में अशोक के फूल का महत्वपूर्ण संबंध था।  तथा प्राचीनकाल से आज तक मनुष्य की मनोवृत्ति में आया परिवर्तन भी दिखाया है।
अशोक के छोटे-छोटे रक्तवर्ण पुष्प स्तबक बडे ही मनोहर हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य और जीवन में इसका अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान था। कालिदास के पूर्व भी भारतवर्ष में इन पुष्प का अस्तित्व रहा होगा। मगर कालिदास के काव्यों में इसने नव वधू के गृहप्रवेश की शोभा, गरिमा और सुकुमारता के साथ प्रवेश किया और मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के साथ शीघ्र ही साहित्य के सिंहासन से यह उतार दिया गया। तपोनिष्ठ महादेव के मन में क्षोभ और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मन में सीता का भ्रम पैदा करने की शक्ति उनमे थी ।  पंडितों की राय में कंदर्प गंधर्व शब्द का भिन्न उच्चारण मात्र है।  कंदर्प के द्वारा अशोक को चुनना बताया है कि यह आर्येतर सभ्यता की देन है।  वरुण, कुबेर आर्येवर जातियों के उपास्य थे। कंदर्प कामदेव कें रूप से ग्रहण किया गया ।  वह कामदेव शंकर और विष्णु से भयभीत रहता था। बुद्धदेव से भी उसने टककर ली, वह हारने पर भी झुकनेवाला नहीं ।  उसने अशोक को अपना अंतिम अस्त्र बनाया, बौद्ध धर्म को घायल और शैव धर्म को अभिभूत किया ।  शाक्य साधना को झुका दिया।
कवि रवींद्र के अनुसार भारतवर्ष एक महामानव समुद्र है।  इस विचित्र देश में असुर, आर्य, शक, हण, नाग, यक्ष, गंधर्व आदि कितनी ही जातियाँ आयी।  आज के भारत के निर्माण में इन सबका हाथ है। हर एक पशु और हर एक पक्षी भी अपनी स्मृति परम्परा है। इसी प्रकार अशोक अम्र बकुल की आदि स्मृति परम्परा है। वामनपुराण के अनुसार कामदेव ने महादेव पर अपने बाणों का प्रहार किया और उनके क्रोध से जलकर भस्म हो गया तो उनका रत्न निर्मित धनुष टुकडे होकर पृथ्वी पर गिर गया। उस रत्नमय धनुष के भिन्न-भिन्न भाग पृथ्वी पर गिरकर चम्पा, मौलसिरी, पाटल, चमेली और बेला के पुष्प बन गये।
य   विलासिता के प्रतीक थे। महाभारत के अनुसार संतानकांक्षिणी ं स्त्रियाँ वृक्षों के पास जाती थी ।  इन वृक्षों में अशोक सर्वाधिक महत्वपूर्ण और रहस्यमय है।  सुन्दरियों के चरण ताडन से इसमें दोहद का संचार होता है।  बाद के ग्रंथों में वर्णन मिलता है कि चैत्र शुक्ल अष्टमी को व्रत रखकर अशोक की आठ पत्तियाँ खाने पर स्त्री गर्भवती होती है।  अशोक कल्प के अनुसार अशोक के सफल वांत्रिक सिद्धि और लाल फूल कामोत्तेजक हैं। अशोक वृक्ष की पूजा गंधर्वों और यक्षों की देन है।  वास्तव में पूजा अशोक वृक्ष के अधिष्ठता देवता कंदर्प की होती थी।  यह मदनोत्सव कहा जाता था ।  अशोक का फूल भारत की सामन्ती सभ्यता की रुचि का प्रतीक है।  सामंतों और साम्राज्यों के साथ मदनोत्सव भी मिट गये।  काली, दुर्गा, पीर, भैरव आदि संतान दाता देवता बन गये।  समाज का मौजूदा रूप कितनी ही चीजों के परिग्रहण और परित्याग के बाद की संस्कृति भी सदा स्थिर न रहती। प्राचीन सामंती सभ्यता समाप्त हुई।  मध्य युग में मुसलमान रईसों के अनुकरण पर बनी रस – राशी भाप बनकर उड गयी फिर व्यवसायिक युग का कमल भी ऐसा ही कैसे बना रहेगा।
अशोक के लिये उदास होना व्यर्थ है।  वास्तव में वह तो पहले की तरह मौज में है।  मनुष्य की मनोवृत्ति ही बदली है उसका बदलना जरूरी भी है। वह न बदलती तो व्यवसायिक संघर्ष, मशीन के घर्घर रथ और वि    के घाव से हम सब पिस जाते।


ÌOûmmÉhÉÏ : 1. aÉÇkÉuÉï AÉæU MÇüSmÉï  2. rÉ¤É AÉæU aÉÇkÉuÉï  3. xÉÇiÉÉlÉÉÍpÉïlÉÏ Îx§ÉrÉÉð AÉæU uÉפÉ
         4. mÉÑlÉÉsÉÑAlÉ xÉÉåxÉÉCOûÏ  5. xÉÉUÉ xÉÇxÉÉU xuÉÉjÉï MüÉ AZÉÉQûÉ 6. qÉSlÉÉåixÉuÉ

1)     ‘अशोक के फूल’ निबंध का सार लिखिए।
2)     ‘भरत वर्ष का स्वर्ण युग इस पुष्प के प्रत्येक दल में लहरा रहा है”।  इस कथन का समर्थन कीजिए ।

ललित कलाएँ (IIBBM)
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा लिखित ‘ललित कलाएँ’ विवेचनात्मक निबन्ध है । लेखक का विचार है कि ललित कला वह है जिसे इन्द्रियों की मध्यस्थता द्वारा मानव मन अनुभूत करता है।  ललित कलाएँ मानसिक दृष्टि से सौन्दर्य का प्रत्यक्षीकरण हैं।  सृष्टि में जो कुछ देखा जाता है, वहसबउपयोगी होने के साथ साथ सौन्दर्य भी पाया जाता है।  इसी कारण मनुष्य पशु –पक्षियों, फल-फूलों, नदी-तालाबों आदि में किसी नकिसी प्रकार का सौन्दर्य पाता है।  तबसंसार में उपयोगिता औरअनुपयोगिता, सुन्दरता औरकुरूपरा की आवश्यकता है।  क्योंकि एक के अस्तित्व से ही दूसरे का अस्तित्व प्रकट होता है।  जबकिसी गुण या कौशल के कारण किसी वस्तु में उपयोगिता औरसुन्दरता आती है उसे ‘कला’ कहते हैं । इसमें पहले उपयोगी कला के अन्तर्गत बढई, लुहार, जुलाहे आदि के व्यवसाय सम्मिलित हैं तो दूसरी ललित कला के अन्तर्गत वस्तु-कला, मूर्ति-कला, चित्र-कला, संगीत कला और काव्य-कला ये पाँच भेद हैं।  इन सभी में मूर्त आधारों की क्षीणता और मानसिक भावनाओं की अधिकता के आधार पर काव्य-कला को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया है।  क्योंकि एक और जहाँ कुछ ललित कलाएँ मात्र आँखों द्वारा मानसिक तृप्ति प्रदान हैं और कुछ मात्र कर्ण द्वारा मानसिक तृप्ति प्रदान करते हैं कि वही दूसरी काव्य-कला शब्द संकेतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं तथा दृश्य और श्रव्य दोनों ही आधार पर मानव मन को झान प्रदान कर पूर्ण मानसिक तृप्ति देते हैं।  क्योंकि ललित कलाओं में किसी न किसी प्रकार की आधार की आवश्यकताके साथ उत्पादक का मन देखने या सुननेवाले के मन से सम्बंध स्थापित करता है और अपने भावों को उस तक पहुँचाकर उसे प्रभावित करता है।  इससे दोनों के बीच अन्तर मिट जाता है। वास्तु कला में मूर्त आधार निकृष्ट होता है, ईंट, पत्थर, लकडी आदि जिनसे इमारतें बनाई जाती हैं।  ये सभ पदार्थ मूर्त हैं, आतएव इनका प्रभाव आँखों पर वैसा ही पडता है जैसा कि किसी दूसरे मूर्त पदार्थ का पड सकता है।  मूर्ति कला में मूल आधार पत्थर, धातु, मिट्टी या लकडी आदि के टुकडे होते हैं जिन्हे मूर्तिकार काँट – छाँटकर अपनी इच्छा के मुताबिक आकार देता है। चित्रकला का आधार कपडे, कागज, लकडी आदि का चित्रपट है, जिस पर चित्रकार अपने ब्रश या कलम की सहायता से भिन्न – भिन्न पदार्थों का जीवधारियों के प्राकृतिक रूप रंग और आकार आदि का अनुभव कराता है।  ये सब कलाएँ आँखों द्वारा मानसिक तृप्ती प्रदान करती हैं।  वही संगीत कला और काव्य कला कर्ण द्वारा मानसिक तृप्ति प्रदान करती हैं।  इन में मूर्ति आधार की कमी और मानसिक भावना की अधिकता रहती है।  संगीत का आधार नाद है, जिसे या तो मनुष्य अपने कंठ से या कई प्रकार के यन्त्रों द्वारा उत्पन्न करता है।  परन्तु ललित कलाओं में सबसे ऊँचा स्थान काव्य – कला का है।  इसका आधार कोई मूर्त पदार्थ नही होता।  यह शाब्दिक संकेतों के आधार पर अपना अस्तित्व प्रदर्शित करती है।  मन को इसका      चक्षुरिंद्रिय या कर्णेंद्रिय द्वारा होता है।  इस तरह से इस निबंध में ललित कलाओं की प्रकृति और पारस्परिक महत्वा की उत्कृष्टता का निरूपण किया गया है।


ÌOûmmÉhÉÏ :  1. xÉprÉiÉÉ MüÐ MüxÉÉæOûÏ WûÏ xÉÑÇSUiÉÉ MüÉ AÉSzÉï  
         2. MüÉurÉ MüsÉÉ
         3. xÉÇaÉÏiÉ MüsÉÉ 4. qÉÔÌiÉïMüsÉÉ  5. ÍcɧÉMüsÉÉ
         6. EmÉrÉÉåaÉÏ MüsÉÉ AÉæU sÉÍsÉiÉ MüsÉÉ |
         7. lÉå̧ÉÇÌSìrÉ AÉæU ´ÉuÉhÉåÇÌSìrÉ iÉ×ÎmiÉ |  

1.     ललित कलाओं के बारे में लेखक के विचारों को विस्तारपूर्वक लिखिए।
2.     लेखक ने ललित कलाओं की प्रकृति और पारस्परिक महत्वा की उत्कृष्टता प्रतिपादन किस तरह से किया है?  समझाइए ।


No comments:

Post a Comment