अकेली (II
BA)
- मन्नू भण्डारी
मन्नू
भण्डारी का जन्म मध्यप्रदेश के भानपुरा में हुआ। उनके पिता सुख-संपत्तिराय भण्डारी
हिन्दी में प्रथम पारिभाषिक शब्दकोश के निर्माता थे। काशी हिन्दी विश्वविद्यालय से
हिन्दी में एम.ए. करने के बाद वह अध्यापिका के रूप में कलकत्ता आ गयीं। बाद में वह
दिल्ली विश्वविद्यालय के महिला कॉलेज मिराण्डा हाउस में नियुक्त होने के बाद अपने पति
राजेन्द्र यादव के साथ दिल्ली आ गयी, जो अब उनका स्थायी निवास स्थान है। मैं हार गयी,
तीन निगाहों की एक तस्वीर, एक प्लेट सैलाब, यही सच है और त्रिशंकु उनके प्रकाशित कहानी
संग्रह हैं। एक इंच मुस्कान, आपका बंटी, स्वामी महाभोज और असिमाता उनके उपन्यास हैं।
बिना दीवारों के घर और महाभोज उनके बहुमंचित और चर्चित नाटक हैं। उनकी फिल्मांकित कृतियाँ
हैं: यही सच है, ए खाने आकाश नाई, त्रिशंकु और स्वामी।
सोमा
बुआ बुढ़िया, परित्यक्ता, अकेली है। जब से उनके जवान बेटे की अकाल मृत्यु हुई, उनकी
अपनी भी जवानी चली गयी। उनके पति पुत्र-वियोग से पत्नी, घर-बार छोड़कर तीर्थवासी हो
गये। इसलिए सोमा बुआ को घर में अपने एकाकीपन को दूर करनेवाले कोई भी नहीं थे। पिछले
कुछ सालों से उनके जीवन की यही एकरसता थी। पति साल में एक महीने के लिए सोमा बुआ के
पास आकर रहते थे। लेकिन बुआ को उनकी प्रतीक्षा नहीं रहती। जब तक पति घर में रहते तब
तक उनका मन और भी मुरझाया हुआ रहता क्योंकि उनका व्यवहार सोमा बुआ के प्रति स्नेहहीन
है और उनके रहने से सोमा बुआ का स्वच्छंद घूमना-फिरना, मिलना-झुलना बंद हो जाता है।
संन्यासी महाराज अगर अपनी पत्नी के साथ दो मीठी बात करते तो उसका आसरा लेकर वह उनके
वियोग के ग्यारह महीने काट देती थी। लेकिन संन्यासी महाराज से यह भी नहीं हो सकता था।
पति घर पर नहीं रहने के समय में बुआ किसी के घर मुंड़न, छठी, जनेऊ, शादी या गमी कुछ
भी हो पहुँच जाती हैं और सारी जिम्मेदारी स्वयं सँभाल लेती हैं।
एक बार सोमा बुआ किशोरीलाल के बेटे के मुंडन
में बिना बुलाये चली गयीं। वहाँ अच्छी व्यवस्था नहीं हुई थी। इसलिए उन्होंने सारा काम
बहुत अच्छी तरह सँभाला। किशोरीलाल और उनकी बहुओं ने उनका बहुत यश माना। लेकिन उनके
पति संन्यासी महाराज को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अपनी पत्नी को कठोर शब्दों से गाली
दी। इससे सोमा बुआ को बहुत दुःख हुआ। वह बाहर रोते हुए, बड़बड़ाती रहती है तो राधा भाभी
उसे सांत्वना देती है।
कोई सप्ताह-भर बाद बुआ को पता चला कि उनके
देवर जी के ससुराल वालों की किसी लड़की का संबंध भागीरथी जी के यहाँ हुआ है। वे सब लोग
यहीं आकर ब्याह कर रहे हैं। यह जानकर बुआ बहुत प्रसन्न हुई। इस समाचार को वे संन्यासी
जी से कहती हैं। लेकिन उनकी मौन उपेक्षा से बुआ के मन को चोट तो लगी, फिर भी वे प्रसन्न
थीं। इधर-उधर जाकर वे विवाह की खबरें लातीं। अंत में एक दिन यह खबर मिली कि उनके समधी
यहाँ आ गये हैं। ज़ोर-शोर से तैयारियाँ हो रही हैं। सारी बिरादरी को दावत दी जाएगी।
खूब धूमधाम से शादी होनेवाली है।
सोमा बुआ मन ही मन सोचने लगीं कि आखिर समधी
हैं, उसे भी अवश्य बुलाएँगे। वे एक घर में दाल पीसने के लिए गयी थीं। वहाँ की विधवा
ननद ने कहा कि वह सारी लिस्ट देखकर आयी है। उसमें बुआ का नाम है। बुआ को बहुत खुशी
हुई। फिर उन्होंने सोचा कि लड़की की शादी में क्या दिया जाना ठीक है? वे तुरंत अपने
घर जाकर राधा भाभी के कमरे में चढ़कर उससे भी चर्चा की। समधी की लड़की को उपहार में देने
के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था। इसलिए बुआ ने अपने मृत पुत्र की एकमात्र निशानी अँगूठी
और पाँच रूपये निकालकर राधा भाभी को दिये और उसे बेचकर कुछ ले आने के लिए कहा। राधा
भाभी ने उस अँगूठी को बेचकर बुआ को चाँदी की एक सिन्दूरदानी, एक साड़ी और एक ब्लाउज़
का कपड़ा लाकर दे दिया। सब कुछ देख-पाकर बुआ बड़ी प्रसन्न हुईं।
बुआ ने शादी में जाने की उमंग में एक रूपया
खर्च करके लाल-हरी चूड़ियों के बन्द पहन लिए। सफेद साड़ी को पीले रंग में रंगा। राधा
भाभी के कहने पर उस पर कलफ लगाया। फिर एक नयी थाली में साड़ी, सिन्दूरदानी, ब्लाउज़ का
कपड़ा, एक नारियल और थोड़े-से बताशे सजाए, जाकर राधा को दिखाया। संन्यासी महाराज सबेरे
से इस आयोजन को देख रहे थे। कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि
कोई बुलाने न आये तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा। लेकिन बुआ को उनके बुलावे
पर भरोसा था। वे सब तैयारी के साथ बुलावे की प्रतीक्षा करने लगीं। प्रतीक्षा करते-करते
ही शाम हो गयी, लेकिन उन्हें बुलाने के लिए कोई भी नहीं आया। राधा भाभी सात बजे के
समय में खाना बनाने के लिए कहती है। अंत में बुआ ने उदास मन से उपहार के सामान को उठाकर
बड़े जतन से अपने एकमात्र संदूक में रख दीं और बहुत दुःख से खाना बनाने लगीं।
सोमा बुआ एक अच्छी औरत थीं। पुत्र की मृत्यु
और पति तीर्थवासी बनने के बाद अकेली हो गयी थीं। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए पास-पड़ोसवाले
और रिश्तेदारों को मदद करती थीं। लेकिन सब-के-सब उससे काम करवाते थे और बुआ को भूल
जाते थे। वे सभी से प्यार करती थीं। लेकिन उसे प्यार करनेवाले कोई भी नहीं थे। अंत
तक अकेली ही रह गयी।
प्रश्न
1. ‘अकेली’ कहानी का सार लिखकर उसकी विशेषताओं
पर प्रकाश डालिए।
2. ‘अकेली’ कहानी के आधार पर सोमा बुआ का चरित्र
चित्रण कीजिए।
3. ‘अकेली’ कहानी के आधार पर उसके शीर्षक की सार्थकता
पर प्रकाश डालिए।
टिप्पणि
· सोमा बुआ
· संन्यासी महाराज
· शादी में जाने के लिए बुआ की तैयारियाँ
· किशोरीलाल के बेटे का मुंडन
प्रस्तुतकर्ता-
देवकी प्रसन्ना.जी.एस.
नेहरू
मेमोरियल कॉलेज,
सुल्या।
एक शुरूआत
(IISEM B.A.)
-निर्मल वर्मा
शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा हिन्दी कथाकार
और सुप्रसिद्ध चित्रकार रामकुमार के अनुज हैं। दिल्ली के सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से इतिहास
में एम.ए. करने के बाद इन्होंने वहाँ कुछ वर्षों तक इस विषय का अध्यापन किया। १९५९
ई. में यह चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान, प्राग चले गये, जहाँ छह वर्ष
रहे। फिर यह कुछ वर्षों तक लन्दन में रहे। १९७२ ई. में इन्होंने शिमला की इंडियन इंस्टीट्यूट
ऑफ एडवान्स्ड स्टडीज़ में फेलो के रूप में मिथक चेतना पर कार्य किया। परिंदे, जलती झाड़ी,
पिछली गर्मियों में, बीच बहस में कौवे और काला पानी उनके कहानी संग्रह हैं। वे दिन,
लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख उनके उपन्यास हैं। ‘तीन एकान्त’ इनकी नाट्यकृति है। शब्द
और स्मृति, कला का जोखिम, भारत और यूरोप:प्रतिश्रुति के क्षेत्र, साहित्य और संस्कृति
आदि इनकी निबन्ध पुस्तकें हैं।
लेखक और उनका पहचान बहुत संक्षिप्त है। चैनेल
पार करते हुए स्टीमर पर परिचय हुआ था। ऐसा परिचय ज्यादातर शुरू होने से पहले ही खत्म
होने लगता है। लेकिन ऐसा लगता है मानो काफी समय से दोनों खामोश बैठे हैं। लन्दन से
प्राग तो एक रात और एक दिन की यात्रा है। लेखक दुबारा इस रास्ते से वापस लौट रहे हैं
और सोचते हैं कि सागर एक स्वप्न है।
पहली बार जब लेखक लंदन आते समय चैनेल पार
कर रहा था तब अलग ही वातावरण था। वे गरमियों के दिन थे और सब लोग यूरोप में छुट्टियाँ
गुज़ार कर घर लौट रहे थे। चारों ओर खुशी का वातावरण था। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है।
सभी लोग बहुत चुप हैं, अपने में खोए-से। सिर्फ समुद्र का स्वर है। स्टेंड पहुँचने के
लिए अभी तीन घंटे बाकी है। यहाँ स्टीमर पर सभी के हाथों में सिगरेटों के दस-बारह पैकेट
रहते हैं। लेखक भी कुछ पैकेट खरीदे हैं। उसके बैग में एक उपन्यास भी है। स्टीमर पर
खाली समय पढ़ने के लिए खरीदे थे। पढ़ना चाहते हैं, लेकिन किताब खोलते ही सिर चकराने के
कारण पढ़ नहीं पाये। समुद्र ही शायद अपने में बहुत-कुछ है।
लेखक के भीतर से कोई कहता है-यह एक शुरूआत
है। डेक की कुरसी, गीली सफेद धूप और यूरोप का आकाश। जिन लोगों को अगले कुछ वर्षों में
सोचने नहीं सकेगा, उन लोगों के बारे में सोचने लगते हैं। एक विचित्र शून्यता में घिर
जाते हैं। सैंडविचेज़ का डब्बा खोलकर उनको देते हैं। वह स्टीमर पर कुछ भी नहीं खाने
के कारण से नहीं लेता है। वे फिर समुद्र को ऐसे देखने लगे मानो कोई खो गयी चीज़ को निश्चिंत
निर्विकार भाव से खोज रहे हैं।
दोनों बहुत देर तक चुप रहे। लेखक को कुछ
भी काम नहीं था। समुद्र की ओर देखकर थकने के कारण उनकी ओर देखते हैं। स्टीमर के एक
कोने में दोनों बहुत पास, लेकिन अपने मौन में एक-दूसरे से अल्ग-अलग बैठे हैं। कुछ समय
के बाद उसने वैसी ही शांत निर्लिप्त भाव से लेखक की ओर देखा और लेखक की यात्रा के बारे
में पूछा तो लेखक ने अपनी यात्रा का संक्षिप्त विवरण दिया। उसने बीच में कोई भी प्रश्न
नहीं पूछा। किताब बंद करने के लिए जब उन्होंने डफन-कोट की जेब से अपना हाथ निकाला तो
उनके नंगे कोमल हाथों से उनकी कम उम्र का पता चलता है। लेकिन उनके माथे की झुर्रियों
में अभी से हल्की थकान दिखाई देने लगे।
उसने बहुत धीमी आवाज़ में प्रश्न किया कि
आप पहली बार यूरोप आये हैं। लेखक सिर्फ सिर हिला देते हैं। उसने कहा कि म्युज़ियम, आर्ट-गैलरीज़...
शायद आप यही सब कुछ देखेंगे? लेखक को ऐसा लगा जैसे उनके स्वर में व्यंग्य हो। लेकिन
उनका चेहरा पहले जैसे ही शांत और गंभीर था, उसमें व्यंग्य नहीं था। व्यंग्य नहीं रहने
पर भी, ऐसा लगा, जैसे उनके शब्दों में कुछ ऐसा है, जो लेखक नहीं पकड़ पाये हैं। लेखक
की थर्मस में कुछ कॉफी थी, दोनों उसे पीते हैं। लेखक को क्षण भर के लिए ऐसा लगा जैसे
यह लन्दन के बीते दिनों की अंतिम, आत्मीय विदा हो।
डेक पर हवा का झोंका आता है। पानी की बौछार
उनके कपड़ों को गीला कर जाती है। हवा से उनकी किताब के पन्ने खुल गये हैं। और कुछ पंक्तियाँ
भीग-सी गयी हैं। लेकिन उनका ध्यान उस ओर नहीं था। वे कॉफी पीते हुए समुद्र की ओर देख
रहे थे।
दोनों आपस में बातें करने लगे। स्टीमर की
स्पीड़ काफी कम रहने के कारण स्टेंड पहुँचते वक्त रात होने के बारे में उन्होंने कहा।
लेखक उनके घर के बारे में प्रश्न किये तो उन्होंने झिझकते हुए कहा कि वे घर से वापस
लौट रहे हैं। लेकिन अब यह कहना भी मुश्किल है कि उनका सही और स्थायी घर कौन-सा है-इंग्लैंड
या बेल्जियम। वे पिछले छः वर्षों से बेल्जियम में रह रहे हैं। साल में एक बार घरवालों
से मिलन के लिए लंदन आते हैं। इस बार डॉक्टर ने इनकार करने पर भी जिद करके आये थे।
यूरोप आने पर लेखक के मन में पिछले कई महीनों
से जो उत्साह था, उनके चेहरे की व्यथा और थकान के सम्मुख असंगत-सी लगने लगी। फिर दोनों
चुप रह गये। स्टीमर पर लोगों का कोलाहल बढ़ गया है। कुछ समय के बाद वापस बातें करने
लगे। उन्होंने बहुत निराशा से कहा कि वे सोचते हैं, कुछ लोग कैसे अपने घर से हज़ारों
मील चले जाते हैं हर बार चैनल पार करते हुए लगता है, यह आखिरी बार है, अब नहीं लौटेगा,
यह आखिरी बार है, अब नहीं लौटेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। उन्होंने लेखक के कार्यक्रम
के बारे में प्रश्न करने पर लेखक ने कहा की कार्यक्रम अभी अनिश्चित है।
कुछ देर तक फिर चुप रहने के बाद उन्होंने
कहा कि इट वुड बि ए स्ट्रेंज लैंड। लेखक ने सोचा कि वह प्राग के बारे में कहा है। लेकिन
उन्होंने इंडिया के बारे में कहा था। ‘इंडिया’ उस वक्त वह शब्द लेखक को अजनबी-सा लगा।
‘स्ट्रेंज लैंड’ उस शब्द को उन्होंने दुहराया और कहता है कि सेहत की लाचारी के कारण वह बहुत
घूमा नहीं है। उसके अनुसार लेखक ही भाग्यशाली हैं क्योंकि इतनी, कम उम्र में बहुत कुछ
देख लिए हैं। लेखक कहते हैं कि उम्र कुछ कम तो नहीं है। कम उम्र में यहाँ आ जाता तो
बहुत कुछ सीख सकता था।
उन्होंने
कहा कि यूरोप की यात्रा करते क्या आपको महसूस नहीं हुआ कि वहाँ मृत्यु है। चारों ओर
की हवा में मृत्यु है। हर साल हज़ारों यात्री आर्ट गैलरीज़, म्यूज़ियम, पुराने चर्च आदि
उन्हें आकर्षित करता है और उसे देखकर जाते हैं, लेकिन कोई भी मृत्यु को नहीं देखता।
इसके परे भी एक यूरोप है, वह, जिसे कोई नहीं देखता, जो बहुत अकेला है, धीरे-धीरे मर
रहा है। जिस सेनेटोरियम में वह रहता है, उसके सामने यहूदियों का सिनानोग है, मध्यकालीन
गोथिक इमारत। पिछली लड़ाई में जब नाज़ियों ने बेल्जियम पर कब्ज़ा किया, तो अन्य यहूदी
धार्मिक स्थानों के साथ इस सिनानोग को भी जला डाला था। किन्तु पूरा नहीं, उसका एक हिस्सा
अब भी साबुत खड़ा है। जब कभी रात के समय अपने कमरे की खिड़की के बाहर देखते हैं तो वह
नंगी इमारत काफी भयावह-सी दिखती है। शायद वे उस कमरे में बरसों से अकेला रह रहा है,
इसलिए ऐसा महसूस होता है।
वह चुप हो
गये। लेखक उनसे बहुत कुछ पूछना चाहता था, लेकिन पूछ नहीं सका। स्टेंड पहुँचने में अब
ज्यादा समय नहीं था। दिन-भर चीत्कार करता रहा समुद्र भी अब थोड़ा शांत हो गया था।
स्टेंड के परे सब यात्री अलग-अलग खो जाएँगे। उनके साथ सब
कुछ खो जाएगा-चैनेल की शाम, समुद्र की अबाध, रहस्यमय शून्यता, उनकी आँखों का मौन। लेखक
के मन में एक विचित्र-सा प्रश्न उठा कि वे अपने देश से हज़ारों मील दूर, यहाँ क्यों
चले आये हैं? बार-बार अंतर्ज्ञान ध्यान में आता है। लेकिन महीनों पहले यह अनुभव नहीं
हुआ था। तीन दिन भूखा-प्यासा रहकर वियना के सड़कों पर भटकते रहने के बाद, जब रात को
होटल के कमरे में आया था, तो लगा था, जैसे भीतर की हर दूरी बहुत पास, बहुत आत्मीय सी
हो आयी है, सिर्फ एक डर रह गया है- डर, जो अपने ने अपना ही आलोक समेटे हैं। लेखक अब
वियना छोड़कर वापस यूरोप लौट रहे हैं। स्टीमर की गति धीमी होती जा रही है। यूरोप की
एक रात बहुत दूर तक फैल गई है। यह भी एक शुरूआत है।
प्रश्न
1. ‘एक शुरूआत’ कहानी का सार लिखकर उसकी विशेषताओं
पर प्रकाश डालिए।
२. ‘एक शुरूआत’ कहानी के आधार पर उसके शीर्षक की
सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
टिप्पणि
१. लेखक और सहयात्री का वार्तालाप
२. लेखक की स्टीमर यात्रा
प्रस्तुतकर्ता-
देवकी प्रसन्ना.जी.एस.
नेहरू
मेमोरियल कॉलेज,
सुल्या।
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