उत्तरकांड
उत्तरकांड की विशेषता :
श्रीरामचरित मानस स्वयं में एक कालजयी कृति है और तुलसीदास
जी समन्वयवादी कवि हैं । जीवन का लक्ष्य क्या है? मानवता की कसौटी क्या है इस प्रश्न पर हर युग में विश्व के
श्रेष्ठ चिंतकों और मनीषियों को जूझना पड़ा
था । उत्तरकांडमें तुलसीदास जी ने भी अपने युग के एक चिंतक के रूप में इस प्रश्न
को उठाया है । इस चिंतन का आधार मानव जाति का मानस रोग है । जन्म से लेकर मृत्यु
तक उसीसे जूझना और अंत में उसी रोग से ग्रस्त हो तिल-तिलकर मिट जाना मानव की नियति है । तुलसीदास जी के अनुसार
इस रोग से मुक्ति का एक ही उपाय राम की भक्ति है । क्योंकि भक्ति युग में संतों ने
हर समस्या का एक ही परिहार ढूँढ़ लिया था और वह है राम नाम का जाप ।
उत्तरकांड की विशेषता यह है कि यहाँ आकर श्रीराम की कथा
समाप्त हो जाती है । श्रीराम की दृढ़ आस्था और उसकी महानता का बखान ही उत्तरकांड का
मंतव्य है । साथ ही यहाँ श्रीराम के ब्रह्मत्व की झलक भी है ।
अपने युग की समग्र सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा मानवीय समस्याओं को प्रस्तुत करके उनका सही
समाधान देना ही इस काव्य रचना का उद्देश्य रहा । यह श्रीरामचरितमानस का अंतिम खंड
होने के कारण पूरी कहानी को समेटना भी यहाँ कवि के लिए महत्वपूर्ण बन गया है । ऐसे
में चारों भाइयों को जब बच्चे होते हैं तो उस विचार को कवि यहाँ दो पंक्तियों में
समाप्त कर देता है । राम के राज्याभिषेक की घटना भी यहाँ कवि के लिए कोई महत्व
नहीं रखती है । कवि उत्तरकांड में श्रीराम के ब्रह्मत्व को स्पष्ट कर देने के लिए
उन्हीं के मुँह से भक्ति की पराकाष्ठा का उदाहरण दिलाता है । राम के सम्मुख जितने
भी पात्र आते हैं , विशेषकर भरत, हनुमान, नगरवासी, वसिष्ठ आदि के
संदेह और अज्ञान को दूर करने का प्रयास यहाँ किया गया है । यही ब्रह्मत्व का तकाज़ा
है ।
भरत वनवास के लिए गये हुए भाई राम की प्रतीक्षा कर रहे हैं
। अब अंतिम घड़ी आ गई है । १४ वर्ष बीत चुके हैं । यह अवधि, जो एक दिन की कुछ पहरों
तथा पलों की अवधि साधारण अवधि नहीं है । मन के वेग से चलनेवाला पुष्पक
विमान इस अवधि में उत्सुकता को उत्तुंग पर पहुँचा देता है।
लंका राज्य पाने के बाद विभिषण ने राम-लक्ष्मण से आग्रहपूर्वक
लंका में रुकने के लिए कहा था । उसके लिए कदाचित् लक्ष्मण की सहमति भी थी । श्रीराम एक ओर जननी और जन्मभूमि का हवाला
तो अवश्य देते हैं मगर दूसरी ओर भरत के
प्रेम और अपनेपन को भुला पाना उनके लिए संभव नहीं था । इसलिए श्रीराम लंका में रुकना अस्वीकार करते हैं और
भ्रातृप्रेम से वशीभूत हो भरत के जीवन की अवधि-सीमा के विचार से विचलित हो जाते हैं और
तुरंत हनुमान को भरत के पास सांत्वना देने के लिए भेज देते हैं ।
दूत के रूप में हनुमान: यहाँ राम के आने का समाचार देने के लिए हनुमान ही एक ऐसा
पात्र है जो राम की पीड़ा से भलीभाँति परिचित है । भरत और राम के बीच के
भ्रातृप्रेम को वह अच्छी तरह से समझता है । जिस नंदिग्राम में भरत निवास करता है, उसको भी वह
जानता है । यहाँ श्रीराम हनुमान के वेग को जानते हैं । जिम्मेदारियों को बखूबी
निभाने की उसकी कृतत्व शक्ति से परिचित हैं । इतना ही नहीं उसके दूत कर्म की
कुशलता आजमा चुके हैं । हनुमान की वाक्पटुता और व्यवहार कुशलता से श्रीराम परिचित
हैं ।
हनुमान जब आयोध्या
पहुँचता है तो अत्यंत कृशकाय, जटाजूटधारी भरत को देखता है । भ्रातृ वियोग की पीड़ा से
संत्रस्त भरत को अपने भाई राम के आगमन की सूचना मिलती है । राम के वनवास का चौदह
वर्ष समाप्त हो गया है । पुरवासी प्रतीक्षा के अंतिम मोड़ पर पहुँचे हुए हैं । भरत के दाहिने अंग फड़क रहे हैं । माताओं को भी शुभशकुन के अनुभव हो रहे
हैं । मगर इंतजार की वेदना को वही अनुभव कर सकता है कि जो उस दौर से गुजर रहा हो ।
भरत अब अस्थिर हो उठता है । वह सोचता है स्वामी श्रीराम अब तक आये क्यों नहीं, कहीं मुझे धोखेबाज़ समझकर उन्होंने मुझे भुला तो नहीं दिया ।
प्रतीक्षा की अवधि समाप्त होने के बाद भी यदि मुझमें प्राण रहेंगे तो मुझ जैसा अधम इस संसार में कोई
नहीं है ।
इतने में ब्राह्मण वेष धारण करके वहाँ हनुमान का प्रवेश
होता है । हनुमान ने भरत को देखा । वह कुशासन पर बैठा हुआ है । जटाधारी है , कृशकाय है ।
राम-राम का जाप कर रहा है और
आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है । दूत हनुमान कहता है कि जिसकी तुम प्रतीक्षा
कर रहे हो, वह आ रहा है ।
जिनके सुयश देवगण गा रहे हैं, ऐसे प्रभु श्रीराम शत्रु पर विजय प्राप्त करके सीता और
लक्ष्मण के साथ आ रहे हैं । तुम्हारे दर्शन से मेरे सारे दु:ख समाप्त हो गये । ऐसा लग
रहा है कि मुझे राम ही मिल गये । तब भरत ने उससे पूछा कि श्रीराम क्या कभी अपने
दास के रूप में मुझे याद करते हैं ? उसके लिए हनुमान सकारात्मक उत्तर देकर वहाँ से सीधे राम के
पास चला जाता है । भरत हर्ष चित्त हो अयोध्या नगर की ओर लौटता है । यहाँ आकर भरत
ने यह शुभ समाचार गुरु वसिष्ठ को तथा माताओं को सुनाया ।
जैसे ही श्रीराम के आगमन का अंदेसा होता है केवल राजमहल ही
नहीं सकल पुरजन फूले नहीं समाते । “अवध पुरी प्रभु आवत जानी । बई सकल सोभा के
खानी” इन पंक्तियों के माध्यम से तुलसीदास जी ने वहाँ के हर्षदायक माहौल को पाठकों
के सामने खड़ा कर दिया है ।
राम का पुर प्रवेश:
पुष्पक विमान में आते समय श्रीराम सुग्रीवादि को अयोध्या के बारे में बताते हैं । राम के आते
ही मुनिगणों के साथ आकर भरत अपने भाई का स्वागत करता है । अपने शस्त्र को ज़मीन पर
रखकर शिष्टाचार को मान्यता देते हुए राम ने पहले गुरुजनों के पैरों की वंदना की ।
फिर भरत से गले मिले, तदनंतर शत्रुघ्न को गले से लगाया । तुलसीदास बताते हैं कि प्रभु श्रीराम लोगों
की आतुरता देख अनंत रूप में उनसे मिले । इसका उद्गार हिमालय में बैठे शिवाजी
पार्वती से करते हैं ।
माताएँ राम से मिलकर बहुत ही खुश होती हैं । यहाँ गायें और
बछड़े का उदाहरण बहुत ही सुंदर बन पड़ा है । कौसल्या यह सोचकर हैरान होती है कि मेरे
फूल से बेटे ने महायोद्धा रावण का वध कैसा किया होगा । सुग्रीवादि से राम कहता है
कि मुनियों और माताओं के पैर छूओ । तुलसीदास का उद्धेश्य यही है कि संस्कारहीन
लोगों को संस्कार सिखाए ।
श्रीराम अपने महल में प्रवेश करने से पहले कैकेई के पास
जाते हैं, ताकि उसे आभास दिलाये कि
जो कुछ हो चुका है, उसके बारे में सोचकर मन को दु:खी करने की आवश्यकता नहीं है । अविलंब किये गुरु वसिष्ठ राम
के पट्टाभिषेक की तैयारी की सूचना ब्राह्मणों को देते हैं ।
अयोध्याकांड में राज्याभिषेक का विस्तृत वर्णन होने के कारण
तुलसीदासजी ने यहाँ उसकी पुनरुक्ति से उत्तरकांड को बचाया है । पट्टाभिषेक होने के
तुरंत बाद अलग-अलग प्रकार से श्रीराम की
स्तुति करके देवगण अपने-अपने धाम को लौट जाते हैं । उसके बाद बंदीवेश में आकर नाना
प्रकार से वेदगण भी श्रीराम की स्तुति करके जाते हैं । तदनंतर भगवान शिवाजी कैलाश
से आकर वेदगण श्रीराम की स्तुति करके लौटते हैं ।
संपूर्ण रामचरित मानस समन्वय काव्य है । अत: यहाँ राम-सीता के साथ-साथ शिव-पार्वती का उल्लेख भी इधर-उधर आ जाता है ।
कपि सेना को विदा करना:
राम ने सुग्रीवादि को पास बुलाकर उनसे कृतज्ञता ज्ञापन किया
हैं । राम के लिए उन लोगों ने अपना सब कुछ त्याग दिया था । अब भी वे लोग अपने घर
की सुधि नहीं ले रहे थे । ऐसे में वे लोग राम के लिए लक्ष्मण, राज्य, संपत्ति, सीता, शरीर, घर, परिवार और
स्नेही जनों से भी प्रिय लग रहे थे । अत: श्रीराम ने उनसे प्यार के दो बोल बोलकर उन लोगों को अपने-अपने घर जाने के लिए कहा ।
ऐसे में अंगद श्रीराम के चरणों पर गिर पड़ा और कहने लगा –
मरते समय मेरे पिता बालि मुझे आपकी शरण में डाल गये हैं । मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा
। छोटा-मोटा काम करके यहीं पड़ा रहूँगा । श्रीरामचंद्र ने प्रेमपूर्वक उसे भी विदा
किया । साथ ही निषाद को श्रीराम ने विदा किया । केवल हनुमान ही कुछ दिनों के लिए
वहाँ रुका रहा ।
श्रीराम के
राज्याभिषेक के बाद त्रैलोक्य हर्षित हो उठा था । उनके राज्य में सभी लोग आपस में
प्रेम भाव से रहते थे । धर्म अपने चारों पाँवों को(सत्य, तप, दया और दान) टेककर खड़ा था । राज्य में सुभिक्षा थी । फूट-कलहादि
का नामोनिशान मिट गया था । समुद्र अपनी मर्यादा में रहने लगा था । प्रकृति भी मानव
के लिए अनुकूलकर बनी हुई थी । नगर स्वच्छ और सुंदर था । कवि ने यहाँ अयोध्या नगरी
का वर्णन बहुत ही सुंदर ढंग से किया है । यद्यपि लक्ष्मी चंचला है फिर भी सीता के
रूप में वह पति सेवा, गृह कार्य, सासुओं की
सेवा करके आदर्श सती-धर्म का निर्वाह कर रही
थी । उसकी दो संतानें हुईं । राम
के अन्य भाइयों को भी दो-दो संतानें हुईं । बड़े-बड़े ॠषि-मुनि यदा-कदा आकर राम से मिलकर
चले जाते थे ।
संत और असंतों में भेद:
बड़े संकोच वश भरत ने श्रीराम से यह प्रश्न किया है कि संतों
और असंतों में भेद क्या है ? तब श्रीराम ने उसे विस्तार पूर्वक समझाया, असंत और संतों
के बीच का भेद कुल्हाड़ी और चंदन के आचरण के समान होता है।
कुल्हाड़ी चंदन को काटती है किन्तु चंदन अपना गुण देकर उसे
सुगन्धवासित कर देता है । इसी गुण के कारण चन्दन देवताओं के शीश पर चढ़ता है और
संसार में अत्यधिक प्रिय है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दण्ड मिलता है कि उसे आग में
तपाकर उसपर घन से पीटते हैं ।
१) संतों की विशेषता:
संत जन विषयों से संपृक्त नहीं होते, वे शील तथा
गुण की खान होते हैं । उनको दूसरों का दु:ख देखकर दु:ख एवं सुख देखकर सुख होता है । वे सहसा बुद्धिमान, शत्रु-रहित, मद-रहित तथा विरागयुक्त होते
हैं और लोभ, क्रोध, हर्ष तथा भय
का त्याग किए रहते हैं।
संत लोग कोमल चित्त तथा दीनों पर दया भाव रखनेवाले होते हैं, साथ ही मन, कर्म, वाणी से
श्रीराम की निष्कपट भक्ति करते हैं । वे सबको सम्मान देते हैं तथा स्वयं सम्मान-रहित होते हैं । इस प्रकार
के संत श्रीराम के लिए प्राणों से भी प्रिय होते हैं ।
संत लोग अच्छे काम करके उसे केवल राम के नाम तक सीमित रहते हैं । वे शान्ति, वैराग्य, विनय, तथा आनन्द के
घर होते हैं । उनमें शीतलता, सरलता, मैत्रीभाव तथा धर्म को उत्पन्न करनेवाले ब्राह्मणों के
चरणों में प्रीति होती है ।
ये समस्त लक्षण जिसके ह्रदय में निवास करते हैं-उनको सदैव सच्चा संत माना
जाना चाहिए । वे शम, दम, नियम एवं नीति
से डोलायमान नहीं होते तथा कभी भी कड़वी वाणी नहीं बोलते हैं ।
निन्दा तथा स्तुति दोनों उनक लिए समान है और श्रीराम के चरण-कमलों में जिनमें ममता का
भाव है –ऐसे गुणों के धाम तथा आनन्द की राशि रूप में जो सन्त जन होते हैं, श्रीराम के
लिए वे प्राणों से भी प्रिय हैं ।
२) असंतों की विशेषता: असंतों के स्वभाव के बारे में कहना हो तो कभी भूलकर भी
उनकी संगति नहीं करनी चाहिए । उनका साथ सदैव दु:ख देनेवाला होता है, जैसे हरहट या हरहाई गाय कपिला जैसी सीधी-सादी गाय को नष्ट कर डालती
है । उसी तरह असंत लोग भोलेभाले लोगों का सर्वनाश कर देते हैं ।
दुष्टों के ह्रदय में अत्यधिक संताप रहता है और वे हमेशा
दूसरे की सम्पत्ति देखकर जलते रहते हैं । जहाँ कहीं भी वे दूसरे की निन्दा को
सुनते हैं, हर्षित होते
हैं, मानों पड़ी हुई
निधि पा ली हो ।
वे काम, क्रोध, मद, लोभ के परायण एवं निर्दय, कपटी, कुटिल तथा पापों के घर हैं । वे अकारण सभी से वैर रखते हैं, जो उनका हित
करता है, उसके प्रति भी
अनहित का भाव रखते हैं ।
उनका लेना झूठा है, उनका देना झूठा है, उनका भोजन झूठा तथा चबैना भी झूठा होता है । वे मोर की
भाँति मधुर वाणी बोलते हैं किन्तु उसी की भाँति इतने कठोर होते हैं कि भयंकर सर्प
को भी खा जाते हैं ।
वे परद्रोही तथा पराये धन और परायी निन्दा में मग्न होते
हैं । वे पामर तथा पापमय मनुष्य देह धारण करके भी राक्षस हैं । लोभ ही उनका ओढ़ना
है और लोभ ही उनका बिछौना है । काम तथा क्षुधा संपन्न उनको यमपुरी का भय नहीं है यदि
वे किसी का बड़प्पन सुनते हैं तो सुनते ही ऐसी साँस लेते हैं, मानो जूड़ी आ
गयी हो ।
जब वे किसी की विपत्ति देखते हैं तो ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत भर के राजा बन हों । वे
स्वार्थ में लीन होते हैं, परिवारवालों
के लिए विरोधी, काम और क्रोध
के कारण लंपट तथा अत्यधिक क्रोधी होते हैं । वे माता, पिता, गुरु तथा ब्राह्मण किसी का भी सम्मान नहीं करते हैं । स्वयं
तो नष्ट होते हैं, दूसरों को भी नष्ट करते हैं । वे मोहवश दूसरों से द्रोह भी
करते हैं तथा उन्हें न संतों का साथ अच्छा लगता है और न हरिकथा अच्छी लगती है ।
वे अवगुणों के समुद्र होते हैं । दुर्बुद्धि, कामी और वेद
की निंदा करनेवाले होते हैं । हमेशा दूसरों
के धन के स्वामी होना चाहते हैं । वे परद्रोही होते हैं । ऊपर से सुंदर वेष
धारण करते हैं किन्तु उनके ह्रदय में कपट भरा रहता है ।
ऐसे नीच तथा दुष्ट मनुष्य सतयुग तथा त्रेता में नहीं होते, द्वापर में
थोड़े-थोड़े होंगे पर कलियुग में
तो इनके समूह-के-समूह होंगे । इस प्रकार
श्रीराम भरत को संत और असंतों के बीच के भेदों के बारे में बताते हैं ।
आगे श्रीराम, भरत को समझाते
हैं कि दूसरों के हित करने के बराबर दूसरा कोई धर्म नहीं है और
पर पीड़ा देने के समान दूसरा कोई पाप नहीं है । यही सम्पूर्ण पुराणों एवं वेदों का
निर्णय है । मनुष्य का शरीर धारण करके जो दूसरों को पीडित करते हैं उन्हें जन्म
तथा मरण की भयंकर पीड़ा झेलनी पड़ सकती हैं । मनुष्य मोहवश नाना प्रकार के पाप करते
हैं और स्वार्थ में तत्पर रहते हैं इससे अपना और दूसरों का नष्ट करते हैं !
संतों तथा असंतों के गुणों को जिन्होंने समझ रखा है, वे जन्ममरण के
बन्धन में नहीं बँधते हैं ।
नगरवासियों के सम्मुख श्रीराम का वक्तत्व:
एक बार श्रीराम के बुलाने पर दरबार में गुरु वसिष्ठ तथा
ब्राह्मणों के साथ नगरवासी भी आये । उन्हें संबोधित करके श्रीराम ने कहा -हे समस्त नगरवासियों, मेरी बात
सुनों.....इस प्रकार
कहते समय किसी भी प्रकार का मोह उनके मन में नहीं था । प्रभुत्व का अहंकार उनमें
बिल्कुल नहीं था । वे यह नहीं कहते कि जो मैं कह रहा हूँ उसे करो बल्कि यह कहते
हैं, मेरी इन बातों
में जो तुम लोगों को अच्छी लगे, उसे करो ।
वही मेरा सेवक या परम-प्रिय है जो मेरी आज्ञा का पालन करे । यदि मैं कुछ अनीति या
अनुचित बात कहूँ तो मुझे बीच में ही रोक दो । आजकल न साधु-संत ऐसा कहते हैं और न ही नेता या अभिनेता !
यहाँ राम इस प्रकार कहता है कि यह मानव शरीर जो है, बड़े भाग्य से
हमें मिला है, जो देवताओं के
लिए भी दुर्लभ है। यह साधना का धाम है और मोक्ष के लिए द्वार है । जिसने भी इसे
पाकर, अपना परलोक न
सवाँर लिया हो, वह परलोक में
जाकर दु:ख भोगता है, पश्चत्ताप से
अपना सिर पीट लेता है । बाद में व्यर्थ ही काल, कर्म और भगवान पर मिथ्या आरोप लगाता है ।
इस शरीर का फल विषय भोग नहीं है । स्वर्ग का फल भोग भी
अत्यंत कम समय का है, अंतत: वह दु:ख देनेवाला है । इस अत्यंत
दुर्लभ मनुष्य देह पाकर भी जो व्यक्ति विषयासक्ति की ओर दौड़ते हैं, वे ऐसे मूर्ख
हैं जो अमृत को छोड़कर विष को पा लेते हैं । उन्हें कभी भी कोई अच्छे नहीं मान सकते
हैं । यह तो वही बात हो गई कि पारस मणि को खोकर गुंजा को हाथ में लेने के बराबर है
। इस शरीर में जो अविनाशी है वह लाखों रूपों में जा मिलती है । शरीर मिट जाने पर
फिर एक शरीर को ढूँढ़ लेती । काल, कर्म, स्वभाव और गुणों के घेरे में फँसे और माया से प्रेरित हो वह
भटकने के लिए मजबूर है । ऐसे में भगवान की कृपा से उस अविनाशी को मनुष्य शरीर
प्राप्त हो जाता है । यह मनुष्य शरीर भवसागर को पार करने के लिए बेडे या नौके का
काम करता है । ऐसे में सागर यान में अनुकूलकर हवा की जिस प्रकार अवश्यकता होती है, उसी प्रकार
श्रीराम की कृपा ही अनुकूलकर हवा का काम करता है । सद्गुरु ही इस नौका का कर्णधार
है ।
ऐसे साधन को प्राप्त करके भी जो मनुष्य जन्म और मृत्यु रूपी
सागर को पार नहीं कर पाता वह कृतघ्न, अज्ञानी और आत्मघाती है ।
यदि लोक-परलोक दोनों जगह सुख चाहते हो तो राम के वचनों को दृढ़ता से
ग्रहण करो । यह भक्तिमार्ग सुलभ और सुखदायक है । पुराणों और वेदों में भी इसी का
बखान है । ज्ञान अगम्य है । उसे पाने में अनेकों विघ्न हैं । उसे पाना उतना आसान
नहीं । ऐसा मानकर कोई उसे छोड़ देता है तो राम के लिए वह प्रिय नहीं है । भक्ति
स्वतंत्र और संपूर्ण गुणों की खान है । सत्संग के बिना कोई उसे प्राप्त नहीं कर
सकता है । व्यक्ति का पुण्य प्रबल हो तो ही संतों की प्राप्ति होती है । उनका
सत्संग ही जन्म और मृत्यु के चक्र का अंत
करता है । शंकर की भक्ति द्वारा ही कोई मुझे पा सकता है ऐसा राम ग्रामवासियों से
कहता है ।
सरल सगुण भक्ति के स्वरूप के रूप में श्रीराम इस प्रकार
कहते हैं कि योग, यज्ञ, जप, तप उपवासादि
करने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं है । बस मन में कुटिलता न रखके सदा संतोष के साथ
रहो तो यह सदभक्ति है । जो कभी वैर न करता हो, किसी से झगड़ा न करता हो, न आशा रखता हो और न संत्रस्त होता हो उसके लिए सभी दिशाएँ
हमेशा सुखमय होती हैं । जो फल रहित कर्म करता हो, जो स्वार्थ-रहित, दुराभिमान-रहित हो, निष्पापी और क्रोध रहित हो तो वह निपुण और विज्ञानी कहलाता
है । जिसे सज्जनों की सत्संगति हमेशा प्रिय हो, जिसमें दुराशा बिल्कुल न हो, केवल नामस्मरण में ही सुख पाता हो, वही सच्चा भक्त कहलाता है ।
इस प्रकार तुलसीदास जी ने शुभाशुभ कर्मों के बीच भक्ति के
सरल मार्ग को समझाया है । साथ ही अपने समाज के यथार्थ को सार्वभौम सत्य से जोड़कर, मानवीय पीड़ा
को, उसकी मुक्ति
के उपायों को सर्वसुलभ बना दिया है ।
प्रश्न:
१. उत्तरकांड की विशेषता बताइए ।
२. संतों और असंतों के बीच के भेद को स्पष्ट कीजिए ।
३. राम के पुर प्रवेश का वर्णन कीजिए ।
४. भरत की प्रतीक्षा का
वर्णन पठित काव्य के आधारपर लिखिए।
५. राम और हनुमान के बीच
के भक्ति संबंध को विस्तार से लिखिए।
टिप्पणी लिखिए:
१.हनुमान का दूत प्रसंग २.अंगद की रामभक्ति
३.ममतामयी माताएँ ४.नगरवासियों के सम्मुख
श्रीराम का उपदेश
५.गुरु वसिष्ठ के अनुसार भक्ति की तुलना में जपतपादि की हीनता
६. वानर सेना की
विदाई
सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
१.रहा एक दिन----------राम वियोग ॥ (पृ.सं. ४९)
२.हरषित गुर---------कृपा निकेत ॥ (पृ.सं. ५३)
३.आए भरत--------धनु सायक ॥ (पृ.सं. ५५)
४.भेंटेउ तनय-------बहुत सकुचानि ॥ (पृ.सं. ५८)
५.ह्रदयँ बिचारति------महाबल भारे ॥ (पृ.सं. ५९)
६.कृपासिंधु तब------सुदिन सुभदाई ॥ (पृ.सं. ६२)
७.प्रभु बिलोकि --------सिरु नाइ ॥ (पृ.सं. ६४)
८.दससीस बिनासन------प्रचंड दहे ॥ (पृ.सं. ६८)
९.जो सकाम नर-------रघुपतिपुर जाहीं ॥ (पृ.सं. ७०)
१०.नीच टहल गृह -----गृह जाही ॥ (पृ.सं. ७४)
११.राम राज------विषमता खोई ॥ (पृ.सं. ७७)
१२.बिधु महि पूर----रामचन्द्र कें
राज ॥ (पृ.सं. ८०)
१३.जासु कृपा------सुभावहि खोइ ॥
(पृ.सं. ८१)
१४.जलज बिलोचन-----रबि रनधीरहि ॥
(पृ.सं. ८७)
१५.देखि राम मुनि---कहुँ दीन्ह ॥ (पृ.सं. ८९)
१६.सन्त असन्तन्ह ----सुगंध बसाई ॥ (पृ.सं. ९४) .
१७.परहित सरिस ... .कोबिद नर
॥ (पृ.सं. ९७)
१८. त्यागहिं कर्म----जिन्ह लखि
राखे ॥ (पृ.सं. ९७)
१९. सोई सेवक------भय बिसराई । (पृ.सं. ९९)
२०.बड़े भाग ---------परलोक सँवारा
॥ (पृ.सं. ९९)
२१. बैर न बिग्रह -----दच्छ बिग्यानि
॥ (पृ.सं. १०२)
प्रस्तुति:
१. डॉ. माधवी एस्
भंडारी, श्री. पू. प्र. सं कालेज, उडुपि
२. सुजया पी. आळ्वा, पू. प्र. कालेज, उडुपि
*****
No comments:
Post a Comment