Tuesday, January 8, 2013


बडे भाई साहब                                      आकाश दीप
प्रेमचंद                                                जयशंकर प्रसाद

मनुष्य का निर्माण एक समाज विशेष और एक स्थिति विशेष में होता है, उसकी कला की प्रेरणा भी उसी से प्रभावित होती है। जिस युग का जीवन जिन सुख-दुख की विषम परिस्थितियों के विषम दात- प्रतिधात से विकसित होता है, उस युग का कलाकार अपने को उस व्यापक संघर्ष से अलग नहीं रख सकता। अपने युग की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं का वर्णन अपनी रचनाओं में वह करता है।
साधारण तथा मनुष्य मानसिक-वृत्तियों के द्रष्टिकोण से दो श्रेणियाँ में विभजित हो सकते हैं, बुध्दि प्रधान और ह्रदय प्रधान, बुध्दि के लिए भौतिकता सर्व प्रथम आवश्यक है, और ह्रदय के लिए भावनात्मक सत्तायें जिनके आधार पर वह अपनी मानसिक- प्रतिभाओं को संसार में अवतीर्ण करना चाहता है। हिंदी साहित्य के प्रसिध्द कहानी कार प्रेमचंद और जयशंकर प्रसादजी ने बडे भाई साहब और आकासदीप कहानी के द्वारा इन दो मानसिक  प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए रोमांचक संघर्ष उपस्थित किया है। जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद इस दृष्टी से एक दूसरे के पूरक है। प्रेमचंद और जयशंकर प्रसादजी के चरित्र चित्रण अधिक मनोवैज्ञानिक तथ्यपूर्ण और आदर्शवादी है।
         
बडे भाई साहब
          यह प्रेमचंद द्वारा लिखी गई एक चरित्र- प्रधान कहानी है। भारतीय संस्कति में घरों में बडे लोगों का जो आदर, सम्मान, जिम्मेदारी है उसे उजागर करने की खोशिस इस कहानी द्वारा की गयी है। यह कहानी आज के लिए भी बहुत उपयोगी है क्योंकि प्रेमचंद्जी ने इसमें आधुनिक शिक्षा प्रणाली की तृटियों पर उंगली उठातें उसमे सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया है।
          इस कहानी में जो “मैंप्रयोग हुआ है वह स्वयं लेखक के लिए हैं लेखक और बडे भाई के बीच में पाँच सालों का अंतर है लेकिन पढाई के संदर्भ में सिर्फ तीन दरजे आगे थे तालीम जैसी महत्व के मामले में बडे भाई जल्दबाजी से काम लेना पसंद नहीं करते थे। वह कहते हैं “बुनियाद ही पुख्ता न हो तो मकान कैसे पायेदार बेन।”
बडे भाई का मत है जो भी पढना है उसे ठीक समझ लेना जरूरी है। लेखक को अपने बडे भाई पर उनके परिश्रमी स्वभाव पर एक प्रकार से गौरवपूर्ण भावन हैं। लखक की मिजाज बिलकुल अपने बडे भाई से अलग थी। वह खेलखूद, सैर सफर पतंगबाजी आदि पसंद करनेवाले दिलदार स्वभाववाले है । जिस के लिए बार-बार बडे भाई से डाँट पडती थी। बडे भाई के अनुसार अंग्रेजी की पढायी बहुत कठिन है, उसे पढ्ना हँसी मजाक की बात कोई बडे होने के नाते अपने छोटे भाई के लिए आदर्श बनना चाहते थे वह कहते है कि” इतने मेले तमाशे होते हैं,मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा?” भाई साहब की लताड सुनकर लेखक आँसू भी बहाते हैं। बडे भाई जी तोड मेहनत करते थे लेकिन लेखक को चारो पहर किताबों में डूबे रहना पसंद न था।
फिर भी भाई की गालियों से बचने के लिए अपना एक टाइम्टेबल बना लेते लेकिन उसका अमल करना उन्हें असंभव हो जाता यहाँ कहानी कार बताते हैं “ मौत और विपत्ति के बीच मेंभीऒ आदमी मोह और माया के बन्धन में जकडा रहता है। यह कथन कहानीकार का एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। सालाना इम्तहान में लेखक पास हो जाते हैं और  दरजे में प्रथम आ गए बडे भाई फैल हो गए।
अब लेखक और भी स्वच्छंद हो जाते हैं लेकिन जब एक दिन बडे भाई सहब के हाथों में पकडे जाते हैं तो खूब डाँट पड्ती है। “महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज है बुध्दि का विकास।” वह छोटे को अनेक उदाहरणों के द्वारा समझाते हैं कि घमंड सर्वनाश का कारण बनता है। इस संदर्भ में आधुनिक शिक्षा पध्दति परीक्षा पद्धति और अध्यापकों की दयानीय स्तिथि पर बरस पडते हैम। बडे भाई के अनुसार जीवन में अपना पोशिषन अत्मसम्मान, अनुशासन आदि नहीं तो बडी बडी डिग्रियाँ उपादियाँ आदि बेकार की चीज हैं। फिर जब सालाना इम्तहान हुआ और लेखक पास हो गए और भाई साहब फैल। भाई की दयनीय स्थिति
देखकर लेखक के मन में उनके प्रति सम्मान की भावना और भी बढ्जाती हैं। इसके बाद भाई साहब नरम भी पड्जाते हैं।और बहुत सहिष्णुता दिखाते है। लेखक भी ज्यादा अनुचित लाभ उठाते हैं। लेकिन जब एक दिन संध्या समय कनकौए के पीछे बेतहाशा दौडते पकडे गए तो भाई साहब खूब आडेहाथ लेते हैं। इस बार वे बताते हैं –“ मुझ में और तुझमें जो पाँच साल का अन्तर है उसे तुम क्या खुदा भी नहीं मिटा सकता" वास्तव में इस पूरे पाठ में यही मध्य बिंधु है। यहाँ भारतीय परिवार में अग्रजत्व  की महिमामयी स्थिति दर्श्यी गयी है। सिर्फ इतना  ही नहीं इस जिम्मेदारी को निभाने की भर पूर खोशिश "बडे भाई" कर रहे हैं बडे भाई यह भी बताते हैं  कि  जीवनानुभव में जो सबक हमें मिलती है वह आधुनिक शिक्षा पद्धति में नहीं है। संकट के संदर्भों को कैसे निभाना यह आज कल के नौजवान नहीं जानते। बडे भाई साहब बताते हैं पठ्य पुस्तकों में देश- विदेश की राजनीति, इतिहास,समाज शास्त्र, वैध्यकी , तकनीकी आदी के बडे बडे ज्ञान लिखे रहते हैं जिसे लोग पडते हैं लेकिन जब वास्तविक संदर्भ सामने आता है तब यह सब तालीम बेकार हो जाती है।एसे संदर्भ में पुराने जीवनानुभवी लोग ही धीरज रखते हैं। बडे भाई साहब बताते हैं "आज मैं बीमार हो जाऊँ तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जायेंगे। दादा हों तो किसी का तार न दे न गबराएँ न बदहवास हों पहले खुद मरज पहचान करैलाज करेंगे उसमें सफल न हुए तो किसी  डाकटर  को बुलायेंगे"
भाई साहब अनेक उदाहरणों के साथ अपने अनुज को जीवन की सच्चाई सिखाना चाहते थे । जिस से लेखक को अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मन में श्रध्दा उत्पन्न हुई। लेकिन यह कहानी चरम सीमा पर तब पहुँच्ती है की जब अपने भाई को गले लगा कर वे बोलते हैं"- कनकौवे उडाने को मना नहीं करता। मेरा जी ललचाता है लेकिन करूँ क्या बेराह चलूँ तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर है।
          इस कहानी में प्रेमचंदजी का आदर्शोन्मुक यथार्थवाद प्रस्फुरित हुआ है। इस मेंमानव जीवन का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी हुआ है।
         
आकाश दीप
 पसिध्द कहानिकार जयशंकर प्रसाद्जी मानव ह्र्दय के आंतरिक रहस्य को व्यंजित करने में बहुत निपुण हैं। आपने भारतीय संस्क्रति और इतिहास से संबंधित अनेक कहानियाँ भी लिखी हैं।
          आपकी "आकाश दीप" कहानी प्रेम और घ्रणा के द्वन्द पर आधारित एक विशिष्ट कहानी है। इस कहानी का प्रारंभ समुंदर के बीच नाव में बम्धी दो पात्रों के बिच वार्तालाप के साथ होता है। उसमें एक चम्पा थी और एक जलदस्यू बुधगुप्त दोनों अपने आप को बंध्मुक्त करदेते हैं। उस नाव में इन दोनों के अलावा दस नाविक और एक प्रहरी था। जब आँधी च्लने लगती है युकति और युवक बन्धमुक्त होकर हँसने लगते हैं। इस घटना को जयशंकरजीने नाटकीय ढंग से सजाया है। इतना ही नाहीं एक छायावादी कवि एवं प्रकृति के आराधक होने के नाते सुन्दर  प्रकृति वर्णन भी किया गया है। बंधि बुधगुप्त को आजाद देककर नायक उसे ललकारता है और बन्धी बनाना चाहते हैं लेकिन द्वन्द्व युद्ध में नायक हार जाता है और बुधगुप्त का अनुचार बनजाता है। बुधगुप्त की शूरता से प्रभावित होकर चम्पा उससे प्यार करने लगी। चम्पा अपनी पूर्ण कहानी बुधगुप्त से कहती है और बुधगुप्त अपना परिचय देते हैं।
          कहानीकार ने यहाँ चम्पा और बुधगुप्त के बीच उत्पन्न प्यार का काव्यात्मक ढंग से वर्णन किया है। अंत में दोनो एक द्वीप में आकर उतर पडते हैं जिसका कोई नाम नहीं था । बुधगुप्त उस द्वीप का नाम चम्पा द्वीप रख्ते हैं ।
          पाँच बरस बीत जाते हैं। चम्पा एक उच्च सौध पर बैठी हुई दीपक जला रही थी वह वहीं सपनों में खोई हुई थी वहाँ आकर बुधगुप्त पूछता है कि क्या यह आकाश-दीप तुम्हीं को जलना है। कोई दासी यह नहीं कर  सकती है । लेकिन च्म्पा एक भावुक उत्तर देती है। च्म्पा बताती है अब तुम महानाविक बन गए हो बाली जावा और सुमात्राका वाणिज्य व्यवहार तुम्हारे अधिकार में है लेकिन मुझे तुम तब अच्छे लगत थे जब तुम्हारे पास सिर्फ एक ही नाव थी। चम्पा को बुधगुप्त ने द्वीप की महाराणी बनाया था लेकिन वह अपने को बन्धी समझती है। चम्पा बुधगुप्त को बताती है तुमने दास्युव्रत्ति को छोड दी लेकिन तुम्हारा ह्रदय अब भी अकरूण, असंत्रुप्त ज्वलनशील है। चम्पा अपने पिता और माता की याद करती है। अपने पति के लिए बाँस की पिटारी में दीप जलाकर भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी। यह याद आते ही व्यघ्र हो उठती है और चिल्लाते कहती है "मेरे पिता विर पिता की म्रत्यु के निष्ठूर जलदस्यू!! ह्ट जाओ।" कहानी के पाँचवे ख्ण्ड में च्म्पा और जया का जल्यान, वहाँ बधगुप्त का आगमन और च्म्पा से प्यार भरा संवाद आदि का वर्णन कहानी कार ने किय है, लेकिन चम्पा हमेशा अन्यमनस्क बन के उसे उत्तर देती थी। चम्पा के ह्र्दय में द्वंद्व चलता था। एक ओर वह उससे प्यार करती है तो दूसरी तरफ नफरत। लेकिन बुधगुप्त के साथ प्यार भरा आलिंगन के बाद वह अपने पास छिपाया क्रपाण अतल जल में डुबो देती है "ह्रदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया।"
          चम्पा बताती है " जब मैं अपने ह्रदय पर विश्वास नहीं कर सकी उसी ने धोखा दिया; तब मैं कैसे कहूँ। मैं तुमसे घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अँधेर है जलदस्यु तुम्हें प्यार करती हूँ।" इतना कहके चम्पा रो पड्ती है!! यह कथन चम्पा के मानसिक द्वंद्व को और भी उजागर करता है। एकओर अपने पिता का ह्त्यारा जलदस्यु बुधगुप्त दूसरी तरफ अपने ह्रदय को जीत के अपनेलिए सबकुछ समर्पित करने तैयार बुधगुप्त किसे चुने!
          आदिवासि समारोह में चम्पा को वनदेवी का श्रंगार किया हुआ था। दीप स्थंभ पर चडने पर जया द्वारा पता चलता है कि उसकी शादी की तैयारियाँ होगयी है तब कुपित चम्पा बुधगुप्त से पूछती है। "क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर ही आज तुम सब ने प्रतिशोध लेना चाहा?" लेकिन बुधगुप्त फिर से अपने प्यार की सच्चायी का वर्णन करते हैं और कहता है आज हमारी शादी हो जाएगी और कल ही हम अपार धन राशी के साथ भारत चले  जाऐंगे। 
बुधगुप्त से प्यार करते च्म्पा कहती है मेरे मन में कोई विशेष आकांक्षा नहीं हैं। तुम भारत चले जाओ मुझे यहीं छोड दो मैं इन लोगों की सेवा करती यहीं रहूँगी। लेकिन बुधगुप्त पूछते हैं तुम अकेली यहाँ क्या करोगी इसके उत्तर में चम्पा बताती है “पहले विचार था कि कभी कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि का इस जल में अन्वेशण करूँगी किन्तु देख्ती हुँ मुझे इसी में जलना होगा  जैसे ‘आकाश दीप” इसप्रकार कहानी शीर्षक के साथ अंत होती है चम्पा की मानसिक वेदना और अंतरद्वन्द्व बहुत स्पष्ट है।”  अंत में भारत की ओर प्रस्तान करते बधुगुप्त के पोतों को देखकर वह बहुत दःखी होती है।
यह काहानी मानव ह्रदय के अंतरद्वन्द्वों को उजागर करने में सक्षम हुई है। इस कहानी में कथानक गौण है संवेदना की गहराई प्रमुख है। चम्पा और  बुधगुप्त की अनुभूति और मनोभाओं को मनोवैज्ञानिक ढंग से कहानीकार ने उजागर किया है। प्रकृति चित्रण नारी की सुकुमार भावनाएँ, कथानक में नाट्कीयता सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव व्यंजना इस कहानी में है। कहानिकार प्रसिद्ध नाटककार भी होने के नाते कथानक में संवादात्मकता, नाट्कीयता,कलात्मकता और रोमांटिक ढंग से प्रस्तुत करना इस कहानी की विशेषता है। कर्तव्यनिष्ठ चम्पा बुधगुप्त से न तो प्रेम कर सकती है और न उसका प्रेममय ह्रदय घृणा कर सकता है। इस काहानी का अंत करूणाऔर मानवतावाद में होता है।


डा मुकुंद प्रभु
विभागद्यक्ष हिंदी
संत अलोसियस महाविद्यालय (स्वायत्त), मंगलूर

No comments:

Post a Comment